पंकज कुमार मिश्र लेखक
देश में प्रति वर्ष हजारों की संख्या में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र आत्महत्या करते है । यह मामला बेहद गंभीर है और सरकार का इस और ध्यान नहीं क्योंकि ये जाल और सिस्टम बहुत बड़ा और बेहद मजबूत नेटवर्क से जुड़ा है । कोचिंग संस्थाओं द्वारा प्रताड़ित छात्र छात्राओं के आत्महत्या , छेड़खानी इत्यादि का आंकड़ा और भी विभत्स है । कुछ शिक्षा सरगना शिक्षा व्यवस्था से जिस प्रकार खिलवाड़ कर रहे और स्थानीय प्रशासन के नाक के नीचे से जो हो रहा वह बेहद चिंताजनक है । शिक्षा के नाम पर जिस तरह अभिवाहकों का शोषण किया जा रहा वह किसी से छुपा नहीं और बड़े बड़े कोचिंग संस्थान इनमे सबसे अग्रणी है जो न सिर्फ शिक्षा का व्यवसायीकरण , टैक्स चोरी और मनमानी कर रहें अपितु छात्रों के जीवन के साथ खिलवाड़ भी कर रहें ।
महंगे कोचिंग संस्थान जब लाखो की फीस ले लेते है तो अभिवाहक अपने बच्चे से यह उम्मीद करते है की वह कामयाबी की बुलंदी छूएगा पर केवल चंद रुपए के चक्कर में वही शिक्षा सरगना कई जिंदगियों की बलि ले रहे । निजी विद्यालय तो जमकर मनमानी कर ही रहे जबकि अब इनके साथ छोटे कोचिंग संस्थानो के नाम भी जुड़ रहे जो ग्रामीण इलाकों में भी तेजी से कुकुरमुत्तो की तरह उग रहे और जमकर वसूली कर रहें । आखिर बतौर पैनलिस्ट मैं सरकार का ध्यान इस ओर जरूर आकृष्ट कराना चाहूंगा की इनकी खोजबीन करके तत्काल इनपर सख्त कार्यवाही कराए ताकि ग्रामीण इलाकों की आर्थिक स्थिति सुधरी जा सके और बड़े शहरों के नामी गिरामी कोचिंग संस्थानो में प्रति संस्थान चालीस छात्रों की लिमिट रख कर फीस निर्धारित कर दें ताकि समाजसेवा के नाम पर ढोंग करने वाले बड़े कोचिंग संचालकों पर नकेल कसी जा सके। कोटा से लगातार इंजिनियरिंग और मैडिकल के एन्ट्रेंस एग्जाम के लिए तैयारी कर रहे छात्रों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही है। संख्या सोलह अपने आप में कोई बहुत बड़ी नहीं लगती यदि कोटा में कोचिंग पा रहे छात्रों की कुल संख्या देखें जो दो लाख से सालाना से ऊपर है। पर सर आत्महत्या के पीछे एक परिवार की उम्मीद की मौत होती है और हज़ारों अभिभावकों की रात की नींद उड़ी रहती है आशंकाओं से । उससे बड़ी बात है कि एक छात्र जो आत्महत्या करता है उसके पीछे हज़ारों छात्र होते हैं जो मानसिक तनाव से जूझ रहे होते हैं , बस आत्महत्या का अन्तिम कदम नहीं उठाते । ‘ थ्री इडियट्स ‘ जैसी फिल्म के सुपरहिट होने के बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है । अभी भी अभिभावक बच्चे के जन्म से ही उसके करियर के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं । बच्चे भी मां – बाप के सपने को अपना सपना मान कर उसे पूरा करने को कृतसंकल्प हो जाते हैं पर हर किसी बच्चे में वांछित योग्यता नहीं होती ।इस स्थिति के लिए जिम्मेवार केवल अभिभावक और बच्चे ही नहीं शिक्षण संस्थाएं , शिक्षा व्यवस्था , समाज और सरकार भी है ।
बेरोज़गारी का देश में यह आलम है कि इज्ज़त से रोजी – रोटी कमा सके यह भी संभव नहीं दिखता तो अभिभावकों और छात्रों के मन में भविष्य के प्रति आशंका उन्हें हर आशा की किरण का पीछा करने को मजबूर करती है । जहाँ पेट ना भरने का ख़तरा नहीं है तो दूसरे कामयाब छात्रों से होड़ कॉम्पिटिशन के लिये मजबूर करती है। इस भयावह स्थिति के लिए किसी एक दल या सरकार को दोष देना अनुचित है । यह एक राष्ट्रीय समस्या है और हल दीर्घकालीन नीतियों द्वारा सुदूर भविष्य में ही संभव है। शिक्षक, व्यवसाय, उद्योग और राजनितिक क्षेत्रों को साथ मिलकर एक राष्ट्रीय नीति तय करनी ज़रूरी है । अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो बहुचर्चित डेमोग्राफिक डिविडेंड डेमोग्राफिक डिज़ास्टर में तब्दील हो जाएगा ।
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