बृजेश सिंह विशेष संवाददाता
बदलता स्वरूप गोंडा। समय का चक्र निरंतर गतिशील रहता है, एक समय ऐसा भी था कि जिनके कला और श्रम से रहने के लिए घर और गृह उपयोगी वस्तुएं रखने के लिए पात्र के साथ-साथ दीपावली में सभी के घर मिट्टी के दीए की रोशनी से जगमगाया करते थे। गांव में मिट्टी के मकान अनाज रखने के लिए कूड़ा कोना मिट्टी के बने बर्तन आदि बहुतायत में मिलते थे। प्रायः सभी लोग इसका प्रयोग करते थे इतना ही नहीं पशुओं को चारा, भूसा खिलाने के लिए भी मिट्टी की नाद का इस्तेमाल होता था। गर्मी के मौसम में शहर से लेकर गांव तक सभी लोग ठंडा पानी पीने के लिए मिट्टी की सुराही और घड़े का उपयोग करते थे। जिसमें भीषण गर्मी होने के बावजूद भी जल शीतल रहता था। आज आधुनिकता के दौर में लोग रेफ्रिजरेटर जैसे आधुनिक संयंत्रों का प्रयोग कर रहे हैं। पहले मिट्टी के घर में लगने वाले नरिया, खपड़ा और बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की कुम्हारी कला पर ग्रहण लगता नजर आ रहा है। अब कुम्हार अपनी पुस्तैनी कला से मुंह मोड़ने लगे हैं गांव और कस्बों में भी अब इक्का-दुक्का ही चाक चल रहा है। बाजारों में आए इलेक्ट्रिक सामानों ने इसे और भी जटिल बना दिया है, दिया की जगह बाजार में प्लास्टिक की झालर ने ले लिया है तो वहीं मिट्टी की मूर्तियों को लोगों ने घर से बाहर कर दिया। वर्तमान योगी सरकार कुम्हारी कला को बढ़ावा देने के लिए इलेक्ट्रॉनिक चाक देकर कुम्हारों की इस कला को बचाने के लिए पहल तो कर रही है लेकिन यह नाकाफी है। प्लास्टिक से बने सामान पर रोक लगाने का आदेश जारी हुआ तो कुछ लोगों को आशा की किरण जगी कि अब होटल पर प्लास्टिक के गिलास की जगह पर कुल्हड़ वाली चाय की चुस्कियां लेते लोग नजर आएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ आज भी कागज का गिलास अपनी जगह बनाए हुए है। दुकानदारों को भी सरकारी आदेश बेवजह लगता है कुछ लोगों को इसका भी मलाल है कि कुम्हारी कला को सरकार द्वारा महत्व नहीं दिया जा रहा है लेकिन हम क्या कर सकते हैं हम तो इसे लेकर चल रहे हैं लेकिन नई पीढ़ी इससे विमुख होती जा रही है। सनद रहे एक जमाना था कि कुम्हारी कला से बहुत सारे घरों की जीविका चलती थी। महापर्व दीपावली आते ही गांव से लेकर शहर तक मिट्टी की बनी मूर्ति और दियों से बाजार भरे रहते थे लेकिन आज स्थिति दूसरी हो गई है, जिन गांवों में भोर से ही चाक चलने लगते थे आवां लगाकर मिट्टी के बर्तन पकाए जाते थे मिट्टी के बर्तन खिलौने आदि खरीदने वालों का आना-जाना लगा रहता था। वह अब समाप्त होता जा रहा है। आधुनिकता की दौड़ में कुम्हारी कला की पुश्तैनी संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। कुछ समय पहले जो सरकारी फरमान जारी हुआ था कि अब सभी रेलवे स्टेशनों पर चाय की बिक्री मिट्टी के कुल्हड़ों में होगी वह अब सिर्फ फाइलों तक सीमित होकर रह गया है। इस आदेश से लोगों में आशा जगी थी, अब वह भी अब धूमिल होती दिख रही है क्योंकि कागज और प्लास्टिक के गिलासों में अभी भी धड़ल्ले से चाय बेची जा रही है।
इस व्यावसायिक कुम्हारी कला से लोगों का मोह भंग हो रहा है और लोग रोजी-रोटी की तलाश में अब शहरों की ओर आ चुके हैं या फिर आ रहे हैं। जहां पुराने लोग हैं वही यह कला बची है। मेरी मेहनत का भी मोल लगा लो मेरे घर भी दिवाली आई है शहर के मनकापुर बस स्टैंड से महाराजगंज चौकी की तरफ बढ़ते ही 10-12 कसगढ़ अभी भी इस कला से जीवन यापन कर रहे हैं और इसे जिंदा करने में लगे हुए हैं। एक वृद्धा सन्नो बताती हैं कि भैया दिया, मटका, सुराही, गुल्लक अभी भी बिकते हैं लेकिन इतने भी नहीं कि इसके सहारे साल भर की रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाए। जिन गांवों में यह कला बची है वह है पंढरी कृपाल के नगवा, झंझरी ब्लॉक के शिवाबख्तावर बटौरा में, लेकिन सिर्फ इस कल का प्रयोग दीपावली तक ही सिमट कर रह गया है। कुछ लोग पढ़ लिख कर भी इस कला को जीवन करने में जुटे हैं। जोगीबीर के प्रजापति समाज के लोग बताते हैं कि अयोध्या की दीपावली में तो कुछ न कुछ जुगाड़ हो जाता है लेकिन इसके भरोसे पूरे साल जीवन यापन नहीं हो सकता।